Monday, September 3, 2012

Ajnabi Dost... (Stranger Friend...)

The same thoughts in the two languages I know. The original is in Hindi, while I have tried my best to retain its essence in the English translation.

अजनबी दोस्त ...

नाम उसका ज़हन के किसी कोने में रहता है दबा,
वही नाम है वो जिसके ना जाने कितने रूप देते थे हम बना।
साथ थे जब साथ ऐसा था जैसा ओस की बूंदों और घांस का होता है।
वही सादगी थी उसमें और वही बेपरवाह सी पहचान थी।
कोई क्लेश, कोई दाग ना था उसमें, दोनों की ज़िन्दगी आसान थी।
लड़ते थे जब तब आंसूं इस बात पे आते थे की दूसरा भी रो रहा है।
हंसीं उस वक़्त से कुछ पल दूसरा भी खो रहा है।
अंदाज़ नहीं था की दोस्ती का यह अंदाज़ हमेशा नहीं रहता।
अंदाज़ नहीं था की खुशनुमा आज हमेशा नहीं रहता।
अंदाज़ नहीं था की वक़्त बीतता है तो दूरियां और बढ़ जाती हैं।
कुछ चाही अनचाही मजबूरियां बढ़ जाती हैं।
हर कदम पर चौराहे आतें है,
और हम अपना अपना रास्ता ढूँढ़ते हुए एक दुसरे से बहुत दूर निकल जाते हैं।
और दरमियाँ सिर्फ हवाओं के फासले नहीं रहते,
हम सोच में भी एक दूजे को अजनबी ही पाते हैं।
अपने अपने सफ़र में जो यह दोस्त से अजनबी का अनसोचा सफ़र जो आता है,
अहसास ही नहीं होता की यह कब तय हो जाता है,
और वापस जाने का कोई रास्ता नज़र नहीं आता है।

                                                                 -पियूष 'दीवाना' दीवान 

Stranger Friend 

The name is one that's always there in the lost corners of our mind.
It's the very name that we would twist in a thousand ways, and its owner would never mind.
Our very being would have been intertwined just like dew drops on evening grass.
We would lead our lives as if living on the two sides of a transparent glass.
Our bond would have the simplicity and nonchalance of our hearts,
there would be no manipulations and our words would go to each other as straight as darts.
Our fights would lead to tears in lieu of the knowledge that the other's eyes are wet.
And the fact that we are losing precious time of our blissful togetherness would have got us to fret.
At that time who would have thought that the things wouldn't remain the same forever.
And that some inadvertent distances would cause our bond to almost sever.
Compulsions, some wanted, some unwanted, would creep in our lives in such a manner.
That at every step we will witness crossroads, and choosing our ways together won't really matter.
In searching for our own destiny we would come so far from one another,
that in due course we turn to strangers just like any other for whom we don't even bother.
It's not just the physical distances that would separate us, our thoughts too would hardly clasp.
When would all this happen, we would hardly be able to grasp.
Every now and then, however, we would get a bad feeling about the ways we have traversed.
But the journey from friend to stranger, we would find can hardly be reversed!

                                                                  -Piyush Dewan







Monday, August 27, 2012

Kaagaz ka Dil

एक छोटी सी प्रेम कहानी, कविता की जुबानी...

उस दिन...

लम्बी सांस भरके हिम्मत जुटाई थी,
आँखें बंद करके थोड़ी चाहत बढाई थी।
शीशे के सामने खुद को निहारा था,
मान लिया था सर पर उपरवाले का सहारा था।

घर से निकला था नयी सी जान लेके,
पाकिट को कागज़ पर अपनी जान देके।
उस कागज़ में दिल मैंने चीर के भर डाला था,
और एक अरमान भी जो कई दिनों से पाला था।
कलम जब मैंने उसके सीने पर चलाई थी,
उसकी, मेरी, और बादलों - तीनों की आँख भर आई थी।
नीचे के कोने पर जब नाम अपना लिख डाला था,
उसने, दिल मेरे , और बादलों- तीनों ने  चींख लगाई थी।
फिर रखा था उसे लिफाफे में मेरे कांपते हुए हाथों ने,
संभाल लिया था लेकिन खुद को मेरी खुद की खुद से बातों ने।

उस दिन...

वोह लिफाफा पाकिट में बैठा धड़क रहा था,
बहादुर लम्बे कदमों ने जब पथरीली पगडंडी को सड़क कहा था।
उस कड़ाके जाड़े में एक अजीब ही गर्मी थी,
आखिर पाकिट में एक कागज़ पर मेरे दिल की सारी नरमी थी।
मुस्कान थी जो चेहरे पर गोंद सी बरक़रार हो गई थी,
टीचर की फटकार सुनते वक़्त भी वो जमी वहीँ की वहीँ थी।
आस पास का शोर सब गाने सा लगता था,
कुछ गलती पर कागज़ पाकिट से समझाने से लगता था,
कि जो तेरे पास है वोह सब बेकार है,
और जो पास नहीं है उसी से जीवन साकार है।

कुछ घंटों के इंतज़ार के बाद वो पल आया,
जब भगवान उसको थोड़ी कदम की दूरी पर लाया।
घबरा उठा था, पर तब पाकिट में हाथ डाल कर दिल पे उसे रख लिया,
सांस बीच कर आँख मींच कर कदम उसकी ओर रख लिया।

चलता रहा मैं और वो और पास आती रही,
हिम्मत जो मन में ले कर फिर रहा था वो पल पल जाती रही।
आखिर वो पल आया जब उसकी नज़र गरीब पर पड़ गई,
पिघल गया मन ऐसी उसकी मुस्कान देख के हालत बिगाड़ गई।
किसी तरह वो दस फीट का रास्ता उस कागज़ के इर्धन से तय किया,
उसकी बातों में खो गया जब पाकिट से दिल ने चें चें किया।
हाथ एक पाकिट में डाले ऐसे खड़ा था,
सोचा हुआ एक एक लफ्ज़ मेरे हलग में अड़ा था।
वो कहती गई और बेवक़ूफ़ उल्लू सा सर हिलाता रहा,
और भगवान् से जो कुछ वक़्त मिला था वो हाथ से जाता रहा।

और फिर वो पल अलविदा कह कर मुड़ गया,
स्कूल की घंटी का शोर इकदम कानों में ऐसा उमड़ गया,
कि झट से हाथ को पाकिट से कानों  तक लगाया था जब तक,
कागज़ का दिल फिसल के गिर गया था ज़मीन पर तब तक।
उसे उठाने के लिए फट से नीचे झुक गया,
फिर कुछ ऐसा हुआ की वक़्त वहीँ पर रुक गया।

फिर...

कुछ दिनों में कुछ बार तो वैसे ही हिम्मत जुटाता था,
कागज़ के दिल को दिन के अंत में फिर वैसे ही रुलाता था।
एक दिन पर ऐसा आया की वो घड़ी आनी बंद हो गयी,
मेरी ख़ुशी मेरी तमन्ना स्कूल आना बंद हो गई।

कागज़ का दिल फिर भी मुरझाया नहीं,
वक़्त के साथ पर नई खुशियों पर वो  कागज़ का दिल लुटाया नहीं।
समय  बीतता रहा उस कागज़ को कहीं दराज़ में पड़े धूल खाते हुए,
कुछ मौसम ही बीते उस में से दिल को निकल के वापस आने में।

पर सोचता हूँ आज जब उस वक़्त को जो पीछे छूठ गया,
याद आता है कागज़ में छुपा दिल का छोटा सा एक टुकड़ा जो मुझसे रूठ गया।

                                                                                - पियूष 'दीवाना' दीवान

Disclaimer: All the work on this blog is completely fictional. Part inspired from the author's own life maybe, part inspired from others- but all of it is highly exaggerated to create a good poetic impression. In no ways should any of the stuff posted here be inferred to hint towards the author's own life, or his frame of mind.








Sunday, August 26, 2012

Namaskaar

धुंधले ख्यालों के धूएं से,
कुछ लफ्ज़ चुरा लेता हूँ।
कभी कबार इस झल्ले दिल को,
और बेवक़ूफ़ बना लेता हूँ।
काबिल हूँ यह सोचने की गुस्ताखी की है नहीं कभी,
फिर क्यूँ कुछ बेगाने अफ़साने बुन के,
खुदी को सज़ा देता हूँ?

                                             - पियूष 'दीवाना' दीवान 

Disclaimer: All the work on this blog will be completely fictional. Part inspired from the author's own life maybe, part inspired from others- but all of it is highly exaggerated to create a good poetic impression. In no ways should any of the stuff posted here be inferred to hint towards the author's own life, or his frame of mind.