Monday, August 27, 2012

Kaagaz ka Dil

एक छोटी सी प्रेम कहानी, कविता की जुबानी...

उस दिन...

लम्बी सांस भरके हिम्मत जुटाई थी,
आँखें बंद करके थोड़ी चाहत बढाई थी।
शीशे के सामने खुद को निहारा था,
मान लिया था सर पर उपरवाले का सहारा था।

घर से निकला था नयी सी जान लेके,
पाकिट को कागज़ पर अपनी जान देके।
उस कागज़ में दिल मैंने चीर के भर डाला था,
और एक अरमान भी जो कई दिनों से पाला था।
कलम जब मैंने उसके सीने पर चलाई थी,
उसकी, मेरी, और बादलों - तीनों की आँख भर आई थी।
नीचे के कोने पर जब नाम अपना लिख डाला था,
उसने, दिल मेरे , और बादलों- तीनों ने  चींख लगाई थी।
फिर रखा था उसे लिफाफे में मेरे कांपते हुए हाथों ने,
संभाल लिया था लेकिन खुद को मेरी खुद की खुद से बातों ने।

उस दिन...

वोह लिफाफा पाकिट में बैठा धड़क रहा था,
बहादुर लम्बे कदमों ने जब पथरीली पगडंडी को सड़क कहा था।
उस कड़ाके जाड़े में एक अजीब ही गर्मी थी,
आखिर पाकिट में एक कागज़ पर मेरे दिल की सारी नरमी थी।
मुस्कान थी जो चेहरे पर गोंद सी बरक़रार हो गई थी,
टीचर की फटकार सुनते वक़्त भी वो जमी वहीँ की वहीँ थी।
आस पास का शोर सब गाने सा लगता था,
कुछ गलती पर कागज़ पाकिट से समझाने से लगता था,
कि जो तेरे पास है वोह सब बेकार है,
और जो पास नहीं है उसी से जीवन साकार है।

कुछ घंटों के इंतज़ार के बाद वो पल आया,
जब भगवान उसको थोड़ी कदम की दूरी पर लाया।
घबरा उठा था, पर तब पाकिट में हाथ डाल कर दिल पे उसे रख लिया,
सांस बीच कर आँख मींच कर कदम उसकी ओर रख लिया।

चलता रहा मैं और वो और पास आती रही,
हिम्मत जो मन में ले कर फिर रहा था वो पल पल जाती रही।
आखिर वो पल आया जब उसकी नज़र गरीब पर पड़ गई,
पिघल गया मन ऐसी उसकी मुस्कान देख के हालत बिगाड़ गई।
किसी तरह वो दस फीट का रास्ता उस कागज़ के इर्धन से तय किया,
उसकी बातों में खो गया जब पाकिट से दिल ने चें चें किया।
हाथ एक पाकिट में डाले ऐसे खड़ा था,
सोचा हुआ एक एक लफ्ज़ मेरे हलग में अड़ा था।
वो कहती गई और बेवक़ूफ़ उल्लू सा सर हिलाता रहा,
और भगवान् से जो कुछ वक़्त मिला था वो हाथ से जाता रहा।

और फिर वो पल अलविदा कह कर मुड़ गया,
स्कूल की घंटी का शोर इकदम कानों में ऐसा उमड़ गया,
कि झट से हाथ को पाकिट से कानों  तक लगाया था जब तक,
कागज़ का दिल फिसल के गिर गया था ज़मीन पर तब तक।
उसे उठाने के लिए फट से नीचे झुक गया,
फिर कुछ ऐसा हुआ की वक़्त वहीँ पर रुक गया।

फिर...

कुछ दिनों में कुछ बार तो वैसे ही हिम्मत जुटाता था,
कागज़ के दिल को दिन के अंत में फिर वैसे ही रुलाता था।
एक दिन पर ऐसा आया की वो घड़ी आनी बंद हो गयी,
मेरी ख़ुशी मेरी तमन्ना स्कूल आना बंद हो गई।

कागज़ का दिल फिर भी मुरझाया नहीं,
वक़्त के साथ पर नई खुशियों पर वो  कागज़ का दिल लुटाया नहीं।
समय  बीतता रहा उस कागज़ को कहीं दराज़ में पड़े धूल खाते हुए,
कुछ मौसम ही बीते उस में से दिल को निकल के वापस आने में।

पर सोचता हूँ आज जब उस वक़्त को जो पीछे छूठ गया,
याद आता है कागज़ में छुपा दिल का छोटा सा एक टुकड़ा जो मुझसे रूठ गया।

                                                                                - पियूष 'दीवाना' दीवान

Disclaimer: All the work on this blog is completely fictional. Part inspired from the author's own life maybe, part inspired from others- but all of it is highly exaggerated to create a good poetic impression. In no ways should any of the stuff posted here be inferred to hint towards the author's own life, or his frame of mind.








Sunday, August 26, 2012

Namaskaar

धुंधले ख्यालों के धूएं से,
कुछ लफ्ज़ चुरा लेता हूँ।
कभी कबार इस झल्ले दिल को,
और बेवक़ूफ़ बना लेता हूँ।
काबिल हूँ यह सोचने की गुस्ताखी की है नहीं कभी,
फिर क्यूँ कुछ बेगाने अफ़साने बुन के,
खुदी को सज़ा देता हूँ?

                                             - पियूष 'दीवाना' दीवान 

Disclaimer: All the work on this blog will be completely fictional. Part inspired from the author's own life maybe, part inspired from others- but all of it is highly exaggerated to create a good poetic impression. In no ways should any of the stuff posted here be inferred to hint towards the author's own life, or his frame of mind.