Thursday, September 12, 2013

Pankha ya parda?

 

गर्मी की एक अजब रात याद है,
जब कई देर तक, बंद आंख, सोने का भ्रम किया था।
और, जब बटन दबाकर पंखे के हाथों की थोड़ी खुराख बढ़ाइ थी,
उसके हृदय ने आनंदित हो कर, भरपूर श्रम किया था।
 
एक पर्दा सा बन गया था, उन सफेद घूमते हाथों के आगोश में,
मदमस्त चित्र दिखने लगे थे उस पर, आ नहीं रहे थे जो होश में।
अचंभा हुआ था काफी, और एक उत्साह भी शरीर में दौड़ गया था।
क्यूंकि सालों से भूले कुछ पल, रंगारंग होने लगे थे, 
नाता मन जिनसे कब का तोड़ गया था।

कुछ देर तक, आंख झपकाए बिना, दृश्य सारे ताकता रहा,
और जाले लगी यादों के दराज़ों के कोनों, में झांकता रहा।
कुछ तस्वीरें धुंधली ज़रूर थी, पर उनका जीवित होना था असंकोच,
असीम रंग बिखरा के लाँघ रही थी वह, मेरी सीमित साधारण रोज़मर्रा की सोच।

चेहरे भी थे थोड़े, जो कुछ बीती बातें फुसफुसा रहे थे कानों में,
देखी नहीं थी ताज़गी इतनी, कभी ऐसे बिन बुलाये मेहमानों में...
वक़्त बीतता रहा, और मेहफिल बढ़ती गयी,
तस्वीरें कुछ चाही, कुछ अनचाही, कहानियाँ गढ़ती गयी।
 
हाथ चेहरे पर लगाया तब, और नमी उंगलियों को चूम गयी,
पसीना था की आँसूं, यह पहेली बूझ बुद्धि, पंखे से तेज़ घूम गयी।
अहसास उत्तर का होने ही लगा था तभी,
गुल हुई बत्ती, और पर्दे की तस्वीरें हवा में घुलती मिलती झूम गयी।

                                                                 -पियूष 'दीवाना' दीवान