Friday, October 11, 2013

Raat ke Humsafar


कोहरा छटता है कभी कभी,
और दूर एक पगडंडी दिख जाती है।
कदम पर बढ़ते हैं उसकी ओर तब,
रात की चादर घिर आती है।
अंधेरे में फिर कुछ चमचमाती आँखें मुझपे हैं पड़ती,
और संभल के देख पाऊँ वापस पेहले उस से,
कुछ सायों के कदमों की आहट कानों में पड़ जाती है।
 
 
घबराहट होती है थोड़ी, दिशाहीन हो जाता है हवा का रुख भी कुछ ऐसे,
पैरों से उपर तक बढ़ती बदन में, एक ठंडी कपकपी चढ़ आती है।
आवाज़ देने की चाहत, दब जाती है मौसम की कालिख में,
और रोशनी के एक कतरे की खातिर, रूह भी सूख कर झुक जाती है।
 
 
उसी पल, जैसे जवाब में, उपर से बादल गरज़ कर मुझ से कुछ बात हैं करते,
और अकेले ना होने की एक मीठी सी तसल्ली ज़हन की भूख मिटा जाती है।
हौसले की खुराख मिलते ही, कदम एक ओर फिर तेज़ी पकड़ते हैं,
और खुशी में मुझसे मिलने गले, कुछ बूंदें बादलों से नीचे गिर आती हैं।
इस अपनेपन को देख, पलकों पर लगा नीर मूढ़ जाता है वापस कहीं,
और आसमान के यारों के पीछे छिपी सूरज की लाली, भी तभी नज़र आ जाती है।
 
 
सांस भर कर, हाथ खोल कर, पकड़ने लगता हूँ फिर रफ़्तार कुछ ऐसे,
की छलांग लगा कर, उड़ान भरने की उम्मीद, दिल में एकाएक आती है।
एक छोटी दौड़ बाद ज़मीन से उठने लगता हूँ ज़रा जब,
फ़डफ़डाते हैं पैर, खुलती हैं आँखें, और नींद मेरी खुल जाती है।
 
                                                                                          -पीयूष 'दीवाना' दीवान